Tuesday 7 January 2014

अम्मी की खातिर






















 

अम्मी की खातिर 

आकाश समेटने चला हू
तब भी तो तू नहीं मानती
मै नहीं चाहता
ऐसी छत
जिसमें ढका हो तेरा आंगन या सपने
कैसे भूल सकता हूं
सजदे में झुका तेरा सिर
आंगन में
सुलगती हुई अगरबत्ती
और नैनों से पिघलता हिमखंड

आँखें सूजती हैं मेरी भी
बस पिघलती नहीं
बंद भी नहीं होतीं
शायद सपने आड़े आते हैं
या तेरा वजूद
यह सच है या झूठ समझ से परे है

मक्के की रोटी और चवन्नी तेरी
रोकती है मुझे
विलीन होने से
जो तूने दी थी उस दिन
जब तेरा सिर सजदे में और आंखें हिमखंड हो रहीं थी

इक साया चलता है साथ
महसूस करता हूं उसे
जो छोड़ गया तेरी कलाई
और मेरी बांह
जीने के लिए या शायद जूझने के लिए
मढ़ गया अपने सपने
तेरे सिर
जो अब मेरे सिर पर तांडव करते हैं
तू चिंता न कर
अब वक्त हो गया है
सिर के शांत होने का
और सपनों के मुकम्मल होने का
अब हिमखंड रुकेगा
बहेगा फिजाओं में सिर्फ तेरे वजूद का नारा !!

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