Sunday 2 March 2014

चलते चलते...(लघु संस्मरण)


'बरेली’ यात्रा और 'मैं’

यात्रा की शुरूआत हमेशा कौतूहल, उत्सुकता और रोमांच के साथ होती है। लेकिन इसका अंत थकान, नीरसता और उदासी के साथ होता है। इस मसले पर मेरे साथ कुछ उलटा था। 

कल ही यूपी के खूबसूरत और दिलफेंक शहर 'बरेली' की यात्रा पर जाना हुआ।
कभी-कभी आपको पता नहीं होता कि अगले पल आपके साथ क्या होने वाला है। और जब पता ही नहीं होगा तो न कोई प्लानिंग होगी न ही कोई आईडिया।
ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मसला कुछ यूं था कि बरेली जाने का फरमान अचानक मेरे पास आ पहुंचा। अब फरमान था सो जाना भी जरूरी। लेकिन रेल रिजर्वेशन/टिकट का कुèछ अता-पता नहीं, जैसे-तैसे नोएडा स्थित पीजी से निकलकर मेट्रो के जरिए दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुंचा। पहुचने पर पता चला कि ट्रेन प्लेटफार्म पर रेंग चुकी है।
अब मेरा क्या था...जाना कैंसिल...अरे नहीं। ...मैनें ट्रैक पर दौड़ लगा दी, दौड़ा ही था कि टीटी महाशय ने टांग अड़ा दी...अरे वो गिराने वाली टांग नहीं, टिकिट चेक करने वाली टांग। लेकिन मैं तो मैं था, कहां रुकने वाला। लेकिन अफसोस कि रुकना पड़ा, टीटी की खातिर... नहीं...दरअसल आगे रास्ता ही बंद था।
अब टीटी मेरे सामने और मैं उसके सामने। मामला गंभीर हो रहा था। लेकिन इतना गंभीर हो जाएगा पता नहीं था। टीटी के बिहैवियर से मैं स्तब्ध था।
कुछ ही लम्हों बाद ट्रैक पर मेरे दोनों पैर एक-दूसरे को पछाड़ने की कश्मकश में लगे हुए थे। अगले पल कोच का हैंडल मेरे हाथ में था और शरीर कोच में....
.... लेकिन मन उस टीटी के पास ही छूट चुका था...।

 

2 comments:

  1. बेहतर लिखा है .

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    1. ब्लॉग पर तशरीफ़ लाने पोस्ट पढ़ने के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया.....

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