Friday 14 March 2014

पब्लिश होने के बाद..............

प्रतिष्ठित अखबार मे प्रकाशित

बदलती आकृतियां


कोहरे में आकृतियां बन रही हैं
छिप रही हैं बदमाशियां
कब तक छिपेंगी
कहना मुश्किल
शायद तब तक
जब तक लहू गर्म न हो

सर्द सम्मोहन शुरु हो चुका है
किसी जादूगर के
बोले गए मंत्र के समान
जिसके बाद सब बदल जाता है
कुछ वैसा नहीं रहता
जैसा कुछ देर
पहले छोड़ा गया था

शोर में सन्नाटा छा रहा है
ठीक वैसे ही
जैसे मृत्यु के बाद सिसकियों में
या जैसे शिशु के
जन्म पाने की बाद की खुशी में
अब सर्द का दर्द भी बढ़ चला है
चिरकाल तक
हड्डियों में बसने के लिए.....
 
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उसके शब्दों का तिरस्कार


उस दिन उसने उससे
कहा था
कुछ बेशकीमती शब्दों के साथ
फिर भी नहीं समझा वह
सोचता रहा, टालता रहा
वक्त के साथ
वो बेईमान, नासमझ
उसकी बातें

सुईयां घूमती रहीं
बसंत बीतते रहे
फिर वो भी दिन आया जब
नासमझ समझदार बनने
की फिराक में
चल पड़ा रेतीले आसमान की ओर
उसके कहे हुए बेशकीमती
शब्दों को ढूंढने

देर तो बहुत हो चुकी थी
फिर भी कुछ सुईयां अभी भी
कांपती हथेलियों
पर कटाक-कटाक कर रहीं थीं
लेकिन शब्द तो विलीन हो चुके थे
उस नील गगन में
जहां वो आजकल
अपने शब्दों के साथ विश्राम कर रही है ।।

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मुल्क