Sunday 6 April 2014

याद शहर का मीठा खत


 

तुमसे मिलने की आस में


बात ज्यादा पुरानी नहीं है। कानपुर में बाकी सब की तरह मैं भी पड़ाई और सलीके से जिंदगी जीना सीख रहा हूं। जब भी फु र्सत मिलती है तो यहां की रंगीनियों को करीब से देखने का मौका नहीं छोड़ता। दोस्तों के साथ कम अकसर अकेला ही बड़ा चौराहा पर स्थित जेड स्क्वायर मॉल और कभी-कभी रेव थ्री पहुंच जाता हूं।

दरअसल यहां की चकाचौंध में वेस्टर्न कल्चर के साथ देसी तड़का भी लगा रहता है, जिसमें खुद को खो देने की पूरी कोशिश करता हूं, लेकिन सच तो ये है कि अब यहां अकेले आना अच्छा नहीं लगता। अकसर यहां आकर खाली पड़ी रिलेक्सिंग चेयर्स पर बैठ जाया करता हूं। आज भी बैठा हूं और खुद को लोगों की नजरों में बिजी दिखाने के लिए मोबाइल की स्क्रीन को बेवजह बार-बार खोल-बंद कर रहा हूं।

...हेलो डियर.र.र...
आवाज ठीक मेरे सामने से आई थी। मैनें चौंककर मोबाइल से सिर उठाते हुए देखा कि सामने करीब पचपन-साठ साल के सफे द फ्रेंच कट दाढ़ी चेहरे पर समेटे सज्जन खड़े थे । मुझे उन्हें पहचानने में देर न लगी। वह सज्जन कोई और नहीं बल्कि कानपुर फिल्म सोसाइटी के चेयरमैन और वहीं के फेमस डिग्री कॉलेज के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ. एस.पी. सिंह थे ।

मैनें कौतूहलवश व सकुचाते हुए डॉ. सिंह को इवनिंग विश किया। उन्होंने जवाब देते हुए, इस तरह अकेले बैठने का कारण जानना चाहा और दोस्तों के बिना मॉल में आने की वजह जानने में जिज्ञासा दिखाई। दोस्तों के होने न होने पर सवाल दाग दिया। मैनें 'होते तो साथ आते’ चार अक्षरों का घालमेल जवाब देते हुए खुद को चुप कर लिया।

थोड़ी देर कुछ सोचते हुए उन्होंने सच्चे दोस्तों की परिभाषा बताई और जिंदगीे में कम से कम पांच दोस्तों का होना अनिवार्य बताकर, छाती के बराबर अंदर की ओर खुलने वाली कोट की जेब में हाथ डालकर दो पेज का एक पेपर निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिया।
वह दो पेज का पेपर एकदम कड़क और बेहद सलीके से मोड़ा व रखा गया मालूम हो रहा था। वह दो पेज का पेपर काली स्याही के सुनहरे अक्षरों से सना था। वह बेहद जबरदस्त था और उसमें लिखे शब्दों का कोई जोड़ नहीं था। ये मुझे उसे पढ़ने के बाद पता चला।

क्या था डॉ. सिंह के उन दो पेजों के पेपर में??
नीचे विस्तृत तौर पर उल्लेख कर रहा हूं।

डॉ. सिंह द्बारा दिए गए उस दो पेज के पेपर को 'यादों का आर्इना’, 'निस्वार्थ दोस्ती की कहानी’, 'रिश्तों की सुगबुगाहट’ कह लूं या फिर उसे 'मीठा खत’ कहूं, मेरे लिए डिसाइड करना मुश्किल हो रहा था।
खैर 'मीठा खत’ कुछ इस प्रकार था।

दिन बीत रहे हैं यादों में, फिर वो बीते दिन फिल्म के फ्लैशबैक की तरह सामने आ रहे हैं। जब हम वाकई साथ थ्ो। जेबें खाली होने के बाद भी साथ फिल्में देखने का मौका और पैसा जुटा लेते थ्ो। आज जेबों में उतने पैसे पड़े रहते हैं, जितने उस समय कल्पना में भी नहीं थे   ।

पर समय? साथ? बीते दिनों के धुंधलकों में कही खो गए हैं। कुछ सवाल हैं, जो अपना जवाब चाहते हैं, पर कारणों की कसौटी पर कुछ भी ऐसा नहीं कि जो समझा कर उसे शांत कर सकूं। इन्हीं बातों की वजह से आज सालों बाद तुम्हें कुछ लिखने का फैसला किया है।

मोबाइल के की-पैड और कंप्यूटर के की-बोर्ड पर नाचती अंगुलियों में वो मजा नहीं आता जो 25 पैसे के उस पोस्ट कार्ड में था। पर अब समय बदल चुका है, और तुम भी।
तब लिखना इतना मुश्किल भी नहीं था, लाइफ में इतने कांप्लीकेशन नहीं थे !
आज भी पानी बरस रहा है। पानी की बूंदों की टप-टप वो दिन याद दिला रही है, जब हम बस के गेट पर लटक कर भीगते हुए सारे शहर का चक्कर लगाते थे । वो समोसे याद हैं, महाराणा कॉलेज के गेट के ठीक सामने वाले? आज फिर मन हो रहा है, खाने का। मगर अब बस का गेट नहीं है और हम भीग भी नहीं सकते, बीमार होने का डर है ना। सुना है वहां अब समोसे भी वैसे नहीं रह गए, ठीक हमारी दोस्ती की तरह।

वो स्कूल की दीवारें हमें कभी मिलने से नहीं रोक पाईं, मैं हमेशा तुम्हारे साथ बंक मारकर वहीं पहुंच जाता, जहां साइकिलें हमारा इंतजार करती थीं और फिर शहर का कोई भी सिनेमा हाल हमारी पहुंच से दूर नहीं होता था।
दोस्ती के रिश्तों की वो गर्मी कहां गई ? जब जाड़े में बगैर स्वेटर पहने तुमसे मिलने निकल पड़ता था। कितनी दीवारें फांद लेते थे हम। आज दूसरों के द्बारा झूठ बोलकर बनाई गई नफरत की दीवारें नहीं लांघ पा रहे हैं।


जिंदगी ने हमारे पैदा होते ही ज्यादातर रिश्ते हमें बने-बनाए दिए और उसमें अपनी च्वाइस का कोई मतलब था ही नहीं। तुमसे हुई एक दोस्ती ही ऐसी थी, जिसे मैनें खुद बनाया था। फिर दोस्ती की नहीं जाती, वो तो बस हो जाती है।

कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज बदला, लेकिन हम नहीं बदले, जो बदल जाएं वो हम कहां। तब किसी ने कहा था, रिश्ते हमेशा एक जैसे नहीं रहते, तब कैसे हमने मजाक उड़ाया था उसका। ये नहीं जानते थे कि जिंदगी की राहों में दौड़ते-दौड़ते कब हम अपना मजाक खुद बना बैठेंगे।

तुम हमेशा कहते थे कि जिंदगी जब सिखाती है, अच्छा ही सिखाती है। जिंदगी ने सिखाया तो, पर बड़ी देर से। कंप्टीशन की इस रेस में कब हम एक-दूसरे के ही कंप्टीटर बन गए पता ही नहीं चला। आज ऑफिस का टारगेट सोते-जागते कानों में गूंजता रहता है। साल दर साल पूरा भी होता है, लेकिन एक-दूसरे से मिलने की हसरत कहां गुम हो गई इसकी तलाश है।

इतने पुराने रिलेशन में कुछ शेयर करने जैसा था ही नहीं, सबकुछ इतना स्वाभाविक था कि न मुझे कुछ बोलना पड़ता न तुम्हें कुछ समझना। पर दोस्त जीवन में सबकुछ पा लेने की चाह में हम कब अजनबी बन गए पता ही नहीं चला। तुमने तो अपने आपको साइलेंस के परदे में लपेट लिया और मेरी बोलती बंद हो गई।

अगले हफ्ते एक अच्छी फिल्म रिलीज होने वाली है, उसके टिकिट बुक कर रहा हूं। तुम्हारा इंतजार करूंगा। मुझे उम्मीद है तुम जरूर आओगे, मुझसे मिलने और एक बार फिर पुराने-हसीन लम्हों को याद करने और उन्हें अमलीजामा पहनाने।

तुम्हारा मुकुल श्रीवास्तव.............।।


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