अम्मी की खातिर
आकाश समेटने चला हू
तब भी तो तू नहीं मानती
मै नहीं चाहता
ऐसी छत
जिसमें ढका हो तेरा आंगन या सपने
कैसे भूल सकता हूं
सजदे में झुका तेरा सिर
आंगन में
सुलगती हुई अगरबत्ती
और नैनों से पिघलता हिमखंड
आँखें सूजती हैं मेरी भी
बस पिघलती नहीं
बंद भी नहीं होतीं
शायद सपने आड़े आते हैं
या तेरा वजूद
यह सच है या झूठ समझ से परे है
मक्के की रोटी और चवन्नी तेरी
रोकती है मुझे
विलीन होने से
जो तूने दी थी उस दिन
जब तेरा सिर सजदे में और आंखें हिमखंड हो रहीं थी
इक साया चलता है साथ
महसूस करता हूं उसे
जो छोड़ गया तेरी कलाई
और मेरी बांह
जीने के लिए या शायद जूझने के लिए
मढ़ गया अपने सपने
तेरे सिर
जो अब मेरे सिर पर तांडव करते हैं
तू चिंता न कर
अब वक्त हो गया है
सिर के शांत होने का
और सपनों के मुकम्मल होने का
अब हिमखंड रुकेगा
बहेगा फिजाओं में सिर्फ तेरे वजूद का नारा !!
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