Sunday 23 December 2012

बेनामी रिश्ते


नेशनल दुनिया से इंटर्नशिप के दौरान मुझे दिल्ली में एक खिड़की वाले और छोटे से किराये के कमरे में रहते हुए करीब एक महीने से भी ज्यादा हो रहा है , हाँ लेकिन इस दौरान बिना गारंटर  कमरा ढूढ़ना एक जबरदस्त समस्या बना, शायद ऐसा मेरे नाम और कास्ट के कारण था, मुझे महसूस कराया गया कि मैं मुशलिम हूँ  खैर इन सब बातों को ज्यादा असर मेरे ऊपर नहीं पड़ा , क्योंकि मेरी मुख्या समस्या का समाधान हो गया  था , मतलब मुझे एक खिड़की वाला शानदार कमरा मिल चुका था !
         
         किराये का वह कमरा ज्यादा बड़ा तो नहीं लेकिन ख़ूबसूरत यादों से भरा पड़ा है ! बेतरतीब बिखरे सामान, कई हफ़्तों से किसी कोने में पड़े गंदे कपड़ों का गट्ठर , कमरे की दीवार पर टंगा  निजामिया इस्लामिया मदरसे का पुराना कलेंडर , दीवारों पर आड़े तिरछे, हिंदी इंग्लिश उर्दू में लिखे गए ईन्स पायरिंग  कुटेसंस ,अलमारी में धुल फांकती नोटबुक और शिवखेड़ा व दीपक मस्शल के अधपढ़े नोवेल , किताबें और न जाने इस तरह से कितनी ऐसी जरूरी चीजें बेफिक्री से अपने आप को उस कमरे में समेटे हुए है !
    
         उस कमरे में एक छोटी सी खिड़की भी है जो ज्यादा खुलती नहीं , ऐसा भी नहीं की हमेशा बंद रहती है , जरूरत पड़ने पर मसीन कभी कभी उस खिड़की उस शहर में अपने भविष्य को झाँकने की कोशिश करता रहता हूँ !
       
           कुछ इसी तरह एक दिन उस बंद खिड़की के सर्वजे को खोलते वक्त मेरी नजर खिड़की के नीचे अधबने घोंसले पर पड़ी , जहाँ एक परिंदा कोहरे से सर्द होती दोपहर में आशियाने की तलाश में कोहरे की जर्द से लिपटे पंख फड़फडाने की जद्दोजहद कर रहा था !  उसके पंखों का रंग हल्का नीला , भूरा व कुछ कुछ भद्दा था, उसकी छोटी मगर नुकीली चोंच में घासफूस रुपी खरपतवार से एक मुकम्मल आशियाना गढ़ने की कोशिश में लगा हुआ था !

           इसी बीच ऑफिस से पांच  दिनों की छुट्टी मिली तो गाँव चला गया , वापस आने के बाद शाम के वक्त उस खिड़की स चीं चीं की आवाज सुनाई  दी, खिड़की खोली तो कबूतर के दो छोटे छोटे बच्चों पर नजर पड़ी , जो की उचक उचक कर बहार की तरफ देखन की कोशिश कर रहे थे , दक्खन में मानो वो अपनी मां के आने का इंतजार कर रहे हों या जैसे उन्हें जल्द ही बड़े होकर इस दुनिया को देखने की उत्सुकता हो !
         मैं उन्हें इसी तरह काफी देर तक कौतूहलवश  देखता रहा , तभी एक परिंदा अपनी चोंच में दबाकर कुछ खाने की चीजें लेकर आया ,  देखने में वो हूबहू वैसे ही लगा , जैसा मैंने कुछ दिनों पहले देखा था ! अरे हाँ ये तो वही है , इन बच्चों की माँ , जो इन ऊँची ऊँची इमारतों के शफर में उनके और अपने जीवन यापन के लिए जरूरी भोजन की तलाश में भटक रही थी !

         उन पछियों की जीवन के प्रति जिजीविषा देखकर मैंने उस कमरे की रोशनदान नुमा खिड़की को हमेशा के लिए खोल दिया ! दिनभर में कई बार उनका हलचल भी ले लिया करता , मेरे गले निकली हर एक तरह की रियाजी अवाज अब उनके लिए जनि पहचानी सी हो गयी थी !  मैं हर सुबह उनके लिए एक कटोरी पानी समेत बिस्किट व ब्रेड के टुकड़े खाने के लिए रखने लगा , जोइबद में आदत सी बन गयी !

          इस तरह से सिलसिला चलता रहा , अचानक एक सुबह पानी की कटोरी हाथ में लेकर घोंसले की तरफ बढाया तो वो दोनों परिंदे अपनी माँ समेत गायब थे !एकदम से एसा लगा जैसे वो इस शहर को छोड़कर दूर जा चुके हों , अपने हिस्से के आसमान में पंख फडफडाने !
   

         और आज उनके घर चोडे पूरे दो दिन बीत चुके हैं ! उनके यूँ चले जाने से एक अजीब सी तन्हाई महसूस हो रही है ! वो तीनो परिंदे मेरे दिल मेंसमा चुके थे ! और उनसे अचानक  इस तरह बिछड़ने का गम बार बार मुझे साल रहा है , मेरा मन ढेरों सवाल मुझसे पूंछ रहा है ! अगर उन्हें जाना ही था तो कम से कम बता दिया होता ! मैं भूल गया था कि वो परिंदे हैं , उनमे हमारी तरह इंसानी फितरत नहीं होती !

        , लेकिन मई भी तो अपने सपनो की उड़ान उड़ने के लिए अपनों के दामन को छोड़कर इस शहर को भाग आया , तब उन अपनों के दिलों का हाल भी एसा ही हुआ होगा , जैसा आज मेरा हो रहा है !  बस यही सोंचकर अपने दिल को साधने और उसे मानाने की मेहनती कोशिश कर  रहा हूँ !

        तभी शायद कीड़ी ने सच ही कहा है कि  सपने उड़ान मांगते हैं , और हमें अपने सपनो की खातिर कई नामी बेनामी रिश्तों की कीमत चुकानी पड़ती है ! जिस तरह सूरज और चाँद सच हैं , जिस तरह कोई सच्ची से सच्ची बात सच है , ठीक उसी तरह ये भी सच हैकी जो मिलते हैं वो बिछड़ते भी है !


         हर रोज हर शाम मेरी नजरें उनके वापस आने की रह देखती हैं और उनका  इंतजार करती रहती हैं !


रोज की तरह आज भी सुबह पानी की कटोरी , बिस्किट और ब्रेड के टुकड़े रखना नहीं भूलता , बस इसी उम्मीद में कि शायद वो कभी तो वापस आयेंगे .................................!!




ट्रेन का सबक



अभी दो दिन पहले ही, कानपुर की जुनूनी जमीन से , दिल्ली की धडाधड आगे को मशगूल भागती  धरती पर कदम रखे हैं , और दिल्ली के दिल में समाने व इसकी रफ्तार में शामिल होने  की कोशिश में जुट गया हूँ ! यहां आकर एक नया अनुभव महशूश कर रहा हूँ , जो की कभी कभी रोमांचित करता है , तो कभी कभी कभी अनायास ही दिल के कोनो में भविष्य को लेकर डर  और शंशय भी पैदा करता है !
               
           दिल्ली मेट्रो में ट्रेवल करना , एक अलग और बिलकुल जुदा तरह का एक्सपीरिएंस रहा , यहाँ की चकाचौंध , स्पीड , टेक्नोलोजी  सबकुछ निसंदेह बेजोड़ है ! मेट्रो कोच के अन्दर अलग अलग तरह के , व कई तो बिलकुल हमसब से विपरीत इन्सान अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे ! मैं तो सभी के हाव  भाव व मनोस्तिथि पढ़ने की निष्फल कोशिश  कर रहा था ,  कहा जाता है कि मनुष्य का चेहरा उसका मोनीटर होता है जिस पर उसके मनोस्तिथि के हाव  भाव व रेखाएं खिंच आती है ! मैं तो किसी का चेहरा न पड़ सका , लेकिन उस भीड़ में मौजूद एक शख्स ने जरूर , मुझसे सटकर खड़े युवक के चेहरे की रेखायें व भीड़ में उसके बेगाने मन की उलझन को पड़ चूका था! पास आकर उस शख्स ने , उस युवक से बात की और नार्मल इंट्रोडकसन के बाद इंटरेस्ट , शौक , स्टडी , करियर से होते हुए , उसके द्वारा पूंछे  गए सवाल पर आकर अटक गयी !
  हालाँकि इस बीच मेट्रो ट्रेन कई स्टेशनों पर यात्रियों को छोड़कर , व प्लेटफोर्म से यात्रियों को उठाकर बिना अटके हुए , अपनी तेज गति से गतिमान होती हुई गंतब्य की ओर चली जा रही थी ! उस शख्स ने सवाल फिर से दोहराया ! सवाल उस युवक से था , कि उसने जर्नलिज्म फील्ड क्यों चुनी ?    सवाल सुनकर मैं सन्न रह गया , और अब मेरा ध्यान और उत्सुकता उनके कन्वर्शेसन पर केन्द्रित हो गयी ,  एसा इसलिए था क्योंकि मैं भी जर्नलिज्म में अपना भविष्य तलाश रहा था !
                          जवाब में कई चीजें व  तर्क शामिल थे , मश्लन पैसा , शोहरत और नाम !

  लेकिन क्या सिर्फ इन्ही चीजों को पाने की खातिर आदमी पढाई करता है , मेहनत  करता है , अपना घर-नगर छोड़कर दुसरे नगर जाता है ?  उस शख्स के पास , उस युवक हर जवाब की काट  थी ! युवक कोई जवाब देता , वह शख्स फिर उससे सवाल पूंछ देता , युवक फिर जवाब देता और शख्स फिर उसकी काट करता और और सवाल पूंछता !  युवक के पास अब जवाब न था , वह उस शख्स को अपने जवाबों और तर्क से संतुष्ट न कर सका था ! और खुद भी जान चुका  था कि वह अभी कितने गहरे पानी में है , या दुनिया और जिन्दगी जितनी सीधी व सरल उसे दिखती है शायद उतनी है नहीं !

                  मेट्रो की गति धीमी हो चुकी थी , कोच में हलचल समेत दरवाजे खुद को खोलकर यात्रियों का गर्मजोशी से स्वागत करते जन पढ़ते थे !   राजीव चौक पर वो शख्स और वो युवक , स्टेशन से बहार की और जाती भीड़ में समां चुके  थे, लेकिन उन दोनों के बीच की कन्वर्सेशन व सवालों से मैं सबक ढूँढने की कोशिश कर रहा था !
                  आखिर मैं भी तो जर्नलिज्म की फील्ड में करियर बनाना चाहता  हूँ , लोगों तक सही व ठोस जानकारी पहुचाना चाहता हूँ , मीडिया को जनता द्वारा दिए गए नाम 'चौथा खम्भा' में शामिल होकर खुद के अन्दर एक स्तम्भ खड़ा करना चाहता हूँ , लोगों को अपने काम सी संतुष्ट करना चाहता हूँ , खुद के व खुद से जुड़े लोगों के सपने पूरे करना चाहता हूँ ! .......................ओये भाई साब ........रास्ता छोड़ो ....!  आवाज ठीक मेरे पीछे से आयी थी ... , मेट्रो प्रगति मैदान स्टेशन पर अपने दरवाजे रुपी पंखों को समेत चुकी थी , और भीड़ कोलाहल करती हुई एग्जिट गेट की तरफ बढती जा रही थी , शायद सभी को अपने ऑफिस या अपने काम पर जाने की जल्दी मची हुई थी ! इस बीच मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बन चुका था !!



                                                                                            [ यह लेख  04 नवम्बर 2012 को लिखा गया]


Saturday 22 December 2012

जिद्दी लेखक

लखनऊ से 'MPSVS' में डॉ इन्द्रेश मिश्रा आये हैं                               
मासकाम के 'HOD' की पोस्ट फटाक से पाए हैं!
 नेचर के वो अच्छे हैं,                                                      
दिल के भी वो सच्चे हैं,
स्टूडेंट सारे लगते उनको,
जैसे अपने ही बच्चे हैं !
 यहाँ बोझ बहुत है काम का उनपर                                         
फिर भी M P S V S को, पटरी पर ले आये है!
गंगा की इस धरती पर 
नवाबों के नगर से पधारे हैं !
रूल्स एंड रेगुलेशन में,
देखना चाहें सभी को वो,
खुशियों के संग नॉलेज का सागर भी लेकर आये हैं !
शब्द नहीं है पास मेरे,
आगे कुछ भी लिखने को,
ये मुझसे कहकर कलम मेरी,
स्याही को पानी करती जाये! 
बात सही है कलम की मेरी,
अभी मै इक  अदना सा परिदा हूँ !
क्या लिखू उस हस्ती के बारे में,
जान लूँ पहले  औकात भी अपनी!
कलम मेरी चल चल कर भी  रुकती जाए,
आगे कुछ भी लिखने में, 
 ना अपनी वो सामर्थ बताये!
लेकर अपनी कलम से वादा,
रोका मैंने लिखना ज्यादा,
जब मैं  हो जाऊं विशाल परिंदा ,
तब  तुम मेरे पास ही रहना,
क्योकी कब्र से मै ना लिख पाऊंगा,
बाहर तो मई आ ही जाऊँगा !
इस हस्ती को लिखने की  खातिर,
मै मर कर भी ज़िंदा  हो जाउंगा !!



[ 19 मई को लिखी, गई ये लाइने महाराणा प्रताप स्कूल फॉर वोकशनल स्टडीज के 'HOD' डॉ . इन्द्रेश मिश्रा को सादर समर्पित ]

प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरे कुछ लेख!


पाती ! मौत की


रिजवान .................रिजवान ...............!
आनंद यार तूने क्या रिजवान को कहीं  देखा है ? पता नहीं कहाँ चला गया ! सतेन्द्र आनंद से पूँछ रहा था , तब तक मैं उसके बुलाने की आवाज सुनकर होस्टल की  छत से नींचे आ पहुंचा था ! क्या हुआ सतेन्द्र क्यूँ गला फाड़ रहे  हो ? मैंने सतेन्द्र से पास आकर पूंछा ! यार ये अजीब सा , अजीब तरह की चमकीली पन्नी से ढका हुआ कार्ड डाकिया तेरे लिए छोड़ कर गया है ! चिंतित भाव में सतेन्द्र ने बताया था मुझे !
      मैं भी कार्ड की पन्नी पर लिखे शब्द , और उसकी बात सुनकर सन्न रह गया , और कार्ड खोलते हुए सोंचने लगा , आखिर होस्टल में भेजने की क्या जरुरत थी , घर भेजना चाहिए था ! वैसे भी मैं इस तरह के भोज और भीड़ में शामिल होना मुनासिब नहीं समझता था ! चिंता और जल्दबाजी के कारण कार्ड के ऊपर लिपटी पन्नी मुझसे नहीं खुल रही थी ! तभी आनंद ने कार्ड मेरे हाथ से लगभग खींचते हुए एक ही  झटके में फाड़ कर खोल दिया था , और उसके अन्दर लिखे शब्दों को अपनी जबान देने लगा , उसके द्वारा बोल जा रहा एक एक शब्द मेरे ऊपर बज्रपात कर रहा था ! और अंत में सबसे नीचे , प्रेषक के नाम में ' अमित अग्निहोत्री ' उसने पड़ा था !
     ओ नो .............कहते हुए , बालो को नोचकर मैं नीचे बैठ चुका था !
      अगले पल मैं ट्रेन पकड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पर था , साथ में सतेन्द्र और आनंद भी , जो मुझे छोड़ने आये थे और बार बार ' भोलाराम' के बारे में सवाल करते और मेरे इस तरह अचानक जाने का कारण पूछते जाते थे !
      
   दरअसल मैं जिस गाँव का हूँ , वह बहुत छोटा सा गाँव था , मतलब अभी भी है ! लेकिन थोडा विकसित और बड़ा ! मेरे बचपन में न वहां बिजली थी, न नदी का पुल, और न ही समुचित सड़कें ! जैसा की हर किसी के बचपन में होता है , मेरे भी दो गहरे दोस्त थे !  मैं , मेरे मित्र अमित अग्निहोत्री  और भोलाराम कठेरिया !
     तीनो  साथ स्कूल आते  जाते  थे ! प्राइमरी पाठशाला गाँव से करीब चार पांच किलोमीटर दूर थी , और हमें नदी पार करके जाना होता था ! कभी कभी जब स्कूल जाने का मन न होता तो , नदी में कपडे भिगोते, मिटटी लगाते  और घर आकर चिकनाई की वजह से पानी में रपट कर भीगने का बहाना बना देते !
     स्कूल में तीनो एक साथ , आसपास ही बैठते थे! खाली वक्त में नदी नहाते , सीपियाँ खोजते और भरी दोपहरी में तेज अंधड़ आता तो कच्चे आम बीनने बगीचे में दौड़ पड़ते , खजूर झोरते और आने वाले दिनों में जामुन के बगीचों में धावा  बोलने का प्लान बनाते !
     भोलाराम हम दोनों से निचली जाति  का था , और उसका परिवार बहुत ही गरीब था ! इन असमानताओं के बावजूद हम पड़ने में काफी तेज थे , और अक्सर हम तीनो में कम्पटीशन  रहता , कि कौन फर्स्ट आयेगा ? कभी अमित फर्स्ट आता , कभी भोलाराम  तो कभी मैं !
     मैनें महाराणा से पढाई के दौरान काफी अरसा कानपुर में रहने ,ठिकाने की जद्दोजहद में बिताया ! एग्जाम दिए, प्रैक्टिकल किये और  पास भी किये ! इस बीच कहानियां , लेख , कवितायेँ लिझता रहा , और आज तक अभी सीख रहा हूँ , पड़ रहा हूँ और लगातार कुछ न कुछ लिख रहा हूँ !
     मेरे बचपन के दोस्त अमित अग्निहोत्री अब गाँव के बहुत बड़े ब्यवसायी बन चुके हैं , खेतों में काम आने वाली लगभग हर तरह की मशीनों के मालिक भी हैं !
     वहीँ भोलाराम की कहानी हम दोनों से बहुत जुदा थी , उसने दंसवीं के बाद पड़ाई छोड़ दी थी! होनहार  स्टूडेंट होने के बावजूद वह हिंदुस्तान के लाखों ड्रॉपआउट स्टूडेंट के आंकड़ो में शामिल हो गया था ,  इस सबके पीछे का कारण उसकी निर्धनता ही थी ! हमारे द्वारा मदद की पेशकश करने के बावजूद उसने मदद लेने से मना कर, अपने खुद्दार होने का  आभास  करा दिया  था !  
     उसने नौकरी के लिए भागदौड़ की , इश्तिहार  देखे , फारम भरे ! अन्तता वो होमगार्ड में हो गया , उसकी अंग्रेजी  अच्छी थी , मगर वहां उसकी नौकरी नहीं चल पाई , जबकि इसी नौकरी के दौरान उसे बेस्ट कैडेट का नेशनल अवार्ड भी मिला ! कुछ साल वह नौकरी के लिए भटकता रहा , बाद में उसे हमारे मित्र अमित अग्निहोत्री के सहयोग से टोल टैक्स में नौकरी मिल गयी ! मगर वह प्रतिभाशाली होने के साथ साथ ईमानदार भी था , लिहाजा वहां भी न चल पाया , और कुछ समय बाद वहां से भी नौकरी से हाँथ धोना पड़ा !
    
     तब से ...........   आज उसके इस दुनिया से रुखसत होने की खबर आई !

      ट्रेन के कानफोडू हार्न ने स्टेशन छोड़ने का एलान कर दिया था , अभी भी वह तेरहवीं भोज का कार्ड मेरे हाथ से चिपका हुआ था ! आनंद और सतेन्द्र समझ चुके थे , कि इतनी कम उम्र में अपने लंगोटिया यार के इस तरह छोड़कर चले जाने से मुझ पर क्या बीत रही थी ! मेरा दिमाग उन बचपन की उन मीठी, भोली,बचकानी यादों में बार बार जा रहा था , और दिल जैसे मुंह के रास्ते बाहर आने को तड़प रहा था ! ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी , और मैं भी सतेन्द्र व आनंद का साथ , ताकि भोलाराम की पुण्यात्मा की शांति के लिए गाँव पहुंचू और पूजन भोज में शामिल होकर उसे मेरे सपनों में न आने की गुजारिश करूँ , साथ ही स्वर्ग में सलामत रहने की भी !!

Thursday 20 December 2012

नयनों की नक्काशी



तेरे नयनों की है जो ये नक्काशी,
कर दे मालिक को नौकर, और नौकर को कर दे बेकाशी,
 मुस्कान मधुर है जो ये तेरी, 
मन चंचल अदाएं शोखी से भरी,
देख के तुझको चन्दा भी शरमाये,
चेहरा छुपा के तेरी अंखियाँ चाहे!
समझ के चन्दा की ये हरकत,  
जलन सूरज शोले बरसाए,
हद तो तब ये बड़ जाती है,
जब देख के चन्दा को झरोखे से,  
तू भी पल पल मुस्काती है, 
देख तेरी कातिल ये हंसी, 
चन्दा बोले अब तो फँसी, 
सूरज मन के कोने में गुस्साता, 
दांती पीसे अगले दिन का,
 जल्दी से प्लान बनाता है, 
इसको न आने दूंगा मैं, 
और न ही इस रात को अब,
 चाहें देवता कूच करे अभी के अभी,
 इस धरती को सब, 
तेरे नयनों की है जो ये नक्काशी,
मसगुली यम को भी कर दे बेकाशी !!

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