अभी दो दिन पहले ही, कानपुर की जुनूनी जमीन से , दिल्ली की धडाधड आगे को मशगूल भागती धरती पर कदम रखे हैं , और दिल्ली के दिल में समाने व इसकी रफ्तार में शामिल होने की कोशिश में जुट गया हूँ ! यहां आकर एक नया अनुभव महशूश कर रहा हूँ , जो की कभी कभी रोमांचित करता है , तो कभी कभी कभी अनायास ही दिल के कोनो में भविष्य को लेकर डर और शंशय भी पैदा करता है !
दिल्ली मेट्रो में ट्रेवल करना , एक अलग और बिलकुल जुदा तरह का एक्सपीरिएंस रहा , यहाँ की चकाचौंध , स्पीड , टेक्नोलोजी सबकुछ निसंदेह बेजोड़ है ! मेट्रो कोच के अन्दर अलग अलग तरह के , व कई तो बिलकुल हमसब से विपरीत इन्सान अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे ! मैं तो सभी के हाव भाव व मनोस्तिथि पढ़ने की निष्फल कोशिश कर रहा था , कहा जाता है कि मनुष्य का चेहरा उसका मोनीटर होता है जिस पर उसके मनोस्तिथि के हाव भाव व रेखाएं खिंच आती है ! मैं तो किसी का चेहरा न पड़ सका , लेकिन उस भीड़ में मौजूद एक शख्स ने जरूर , मुझसे सटकर खड़े युवक के चेहरे की रेखायें व भीड़ में उसके बेगाने मन की उलझन को पड़ चूका था! पास आकर उस शख्स ने , उस युवक से बात की और नार्मल इंट्रोडकसन के बाद इंटरेस्ट , शौक , स्टडी , करियर से होते हुए , उसके द्वारा पूंछे गए सवाल पर आकर अटक गयी !
हालाँकि इस बीच मेट्रो ट्रेन कई स्टेशनों पर यात्रियों को छोड़कर , व प्लेटफोर्म से यात्रियों को उठाकर बिना अटके हुए , अपनी तेज गति से गतिमान होती हुई गंतब्य की ओर चली जा रही थी ! उस शख्स ने सवाल फिर से दोहराया ! सवाल उस युवक से था , कि उसने जर्नलिज्म फील्ड क्यों चुनी ? सवाल सुनकर मैं सन्न रह गया , और अब मेरा ध्यान और उत्सुकता उनके कन्वर्शेसन पर केन्द्रित हो गयी , एसा इसलिए था क्योंकि मैं भी जर्नलिज्म में अपना भविष्य तलाश रहा था !
जवाब में कई चीजें व तर्क शामिल थे , मश्लन पैसा , शोहरत और नाम !
लेकिन क्या सिर्फ इन्ही चीजों को पाने की खातिर आदमी पढाई करता है , मेहनत करता है , अपना घर-नगर छोड़कर दुसरे नगर जाता है ? उस शख्स के पास , उस युवक हर जवाब की काट थी ! युवक कोई जवाब देता , वह शख्स फिर उससे सवाल पूंछ देता , युवक फिर जवाब देता और शख्स फिर उसकी काट करता और और सवाल पूंछता ! युवक के पास अब जवाब न था , वह उस शख्स को अपने जवाबों और तर्क से संतुष्ट न कर सका था ! और खुद भी जान चुका था कि वह अभी कितने गहरे पानी में है , या दुनिया और जिन्दगी जितनी सीधी व सरल उसे दिखती है शायद उतनी है नहीं !
मेट्रो की गति धीमी हो चुकी थी , कोच में हलचल समेत दरवाजे खुद को खोलकर यात्रियों का गर्मजोशी से स्वागत करते जन पढ़ते थे ! राजीव चौक पर वो शख्स और वो युवक , स्टेशन से बहार की और जाती भीड़ में समां चुके थे, लेकिन उन दोनों के बीच की कन्वर्सेशन व सवालों से मैं सबक ढूँढने की कोशिश कर रहा था !
आखिर मैं भी तो जर्नलिज्म की फील्ड में करियर बनाना चाहता हूँ , लोगों तक सही व ठोस जानकारी पहुचाना चाहता हूँ , मीडिया को जनता द्वारा दिए गए नाम 'चौथा खम्भा' में शामिल होकर खुद के अन्दर एक स्तम्भ खड़ा करना चाहता हूँ , लोगों को अपने काम सी संतुष्ट करना चाहता हूँ , खुद के व खुद से जुड़े लोगों के सपने पूरे करना चाहता हूँ ! .......................ओये भाई साब ........रास्ता छोड़ो ....! आवाज ठीक मेरे पीछे से आयी थी ... , मेट्रो प्रगति मैदान स्टेशन पर अपने दरवाजे रुपी पंखों को समेत चुकी थी , और भीड़ कोलाहल करती हुई एग्जिट गेट की तरफ बढती जा रही थी , शायद सभी को अपने ऑफिस या अपने काम पर जाने की जल्दी मची हुई थी ! इस बीच मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बन चुका था !!
[ यह लेख 04 नवम्बर 2012 को लिखा गया]
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