Sunday 24 September 2017

तस्वीर के बहाने बाघुपर का दशहरा मेला

बाघपुर चौराहे पर बाबा खाद भंडार के सामने दुकान में पंचर बनाता मिस्त्री

मित्रों, चार साल पहले एक तस्वीर गूगल पर मिली थी। ये बाघुपर चौराहे की तस्वीर थी। स्कूल से छूटने के बाद कुछ छात्र बस/टेंपो के इंतजार में साइकिल पंचर वाले की दुकान पर खड़े हैं। ये दुकान बाबा खाद भंडार के ठीक सामने सड़क के उस पार है। 

खालीपन में छात्र यहां साइकिल की मरम्मत कर रहे मिस्त्री को गौर से देख रहे हैं। उसके काम को समझने का प्रयास कर रहे हैं, और मिस्त्री अपने काम की तल्लीनता में व्यस्त है। उसे फिक्र नहीं कौन उसके पास है। कितनी निगाहें  उसकी कारीगरी का नमूना देख रही हैं। काम कोई भी हो कलात्मकता और मेहनत का मेल उसे प्रचलित और लुभावना बना देता है।

दरअसल, हमारे यहां का ये अतिव्यस्त माना जाने वाला चौराहा है। कानपुर से 13 किलोमीटर पश्चिम की ओर शिवली रोड पर मिश्रित आबादी वाला बाघुपर कस्बा बसा हुआ है। जब मैं बाघपुर इंटर कॉलेज का छात्र था तब चौराहा बहुत विकसित नहीं था। गिनती की दुकानें थीं। अब काफी कुछ बदल गया है। चौराहे पर कई मार्केट बना दी गई हैं। छोटा और संकरा चौराहा काफी बड़ा हो गया है। यहां एक एटीएम भी है। लेकिन, एक-आध बार छोड़ दूं तो मुझे यहां से करेंसी नहीं मिली।

शायद बैँको को लगता होगा कि देहात क्षेत्र की वजह से यहां एटीएम का इस्तेमाल ज्यादा नहीं होता है। उनका सोचना कहीं तक सही है। लेकिन मेरे जैसे कई युवा जब भी अपने काम से छुट्टी लेकर गांव पहुंचते हैं तो उन्हें इस एटीएम पर बड़ा नाज होता है, और बाघपुर के विकसित होने का प्रमाण दिखाई देता है, लेकिन यह प्रमाण बहुत देर तक नहीं ठहरता। जैसे ही एटीम में प्रवेश किया और खाली हाथ लौटे तो कस्बे के अधूरे विकास की कहानी दिमाग में दौड़ जाती है।

कस्बे का एकमात्र बैंक ऑफ बड़ौदा ग्राहकों से भरा रहता है। मैं समझता हूं इस बैंक पर तकरीबन तीन दर्जन से अधिक गांवों की एक लाख से ज्यादा आबादी निर्भर है। यहां का ये इकलौता बैंक है। बैंक में ज्यादातर ग्रामीणों के खाते हैं। भीड़ और अव्यवस्था के चलते मैं यहां अपना खाता खुलवाने की हिम्मत नहीं जुटा सका। हालांकि, मेरे परिवार के अधकांश खाते इसी बैंक में हैं। इस के चलते कभी-कभार यहां जाना पड़ जाता है तो लंबी लाइन और समय अधिक लगने पर एक और बैंक की जरूरत महसूस होने लगती है।

दर्जनों गांवों से जुड़ा यह छोटा कस्बा कई बड़े जिलों, शहरों के लिए रास्ता देता है। यहां से आप पश्चिम की ओर चलेंगे तो औरैया, इटावा, कन्नौज होते हुए राजधानी दिल्ली तक पहुंच जाएंगे। यदि आप पूर्व की ओर चलते हैं  तो कानपुर शहर, फतेहपुर, बांदा, इलाहाबाद, पटना तक पहुंच जाएंगे। यहां से प्रदेश की राजधानी लखनऊ तकरीबन सौ किलोमीटर दूर है।

यहां का सबसे बड़ा पर्व विजयदशमी है। इस दौरान यहां 15 दिनों का लोकप्रिय मेला लगता है। इस दौरान भगवान श्रीराम के जीवन से जुड़े विभिन्न पड़ावों को बड़ी खूबसूरती से दिखाया जाता है। रामलीला कमेटी बाघुपर की ओर आयोजित इस समारोह में बड़ी संख्या में युवा, बुजुर्ग, महिलाएं विभिन्न तरीके से योगदान देते हैं।

मेला देखने के लिए सैकड़ों गांवों के लोग रोजाना यहां आते हैं। दोपहर बाद रात करीब दस बजे तक रामलीला का मंचन किया जाता है। इसके बाद रात में कृष्ण लीला का आयोजन चलता है। बाद के दिनों में नाटक और नृत्य से जुड़े कार्यक्रम भी चलते हैं। रावण वध से तीसरे दिन राज्य स्तरीय इनामी दंगल का आयोजन होता है। इसमें प्रदेश समेत पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, दिल्ली समेत कई राज्यों के पहलवान अपनी ताकत और दांवपेच का प्रदर्शन करते हैं।

विजेता और उपविजेता पहलवान को नकद राशि देकर सम्मानित किया जाता है। मेले के अंतिम दिनों का यह सबसे लोकप्रिय आयोजन माना जाता है। रावण वध वाले दिन के बाद सबसे ज्यादा भीड़ दंगल के दिन ही होती है। इस दिन से महिलाओं की असल खरीदारी भी शुरू होती है। अगले तीन-चार दिनों तक दुकानकारों की बंपरी बिक्री होती है।

मेले की खास बात है कि यहां आने वाले दुकानदारों से किसी तरह का किराया आदि नहीं वसूला जाता है। यही वजह है कि हर साल यहां बड़ी संख्या में दुकानदार आते हैं। महिलाओं से जुड़ी वस्तुएं बेचने और खरीदने के लिए अलग गैलरी बनाई जाती है। ऐसा महिलाओं की सुरक्षा की दृष्टि से किया जाता है। आपसी मेलजोल-भाईचारे की वजह से सभी जाति-धर्मों के लोग दिल खोलकर मेले में हिस्सा लेते हैं।

अगर आप कानपुर या इसके आसपास के जिलों के रहने वाले हैं तो मेला देखने अवश्य जाएं। यहां आपको अलग ही अनुभूति होगी। सांस्कृतिक और पारंपरिक लोक कलाएं देखने को मिलेंगी। ग्रामीण परिवेश निश्चित ही आपको आकर्षित करेगा। 

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