Friday 27 December 2013

दिल मे समाये ग़ालिब


जाग रहा है गजलकार


हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश प दम निकले

बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले

हजारों-लाखों श्ोर लिखने और इससे भी ज्यादा दिलों पर काबिज रहने वाले मिर्जा गालिब उर्फ असदउल्ला खां का जन्म उनके ननिहाल आगरा में 27 दिसंबर, 1797 ई. को हुआ था। इनके पिता फौजी में नौकरी करते थ्ो। जब ये पांच साल के थे, तभी पिता का देहांत हो गया था। पिता के बाद चाचा नसरुल्ला बेग खां ने इनकी देखरेख का जिम्मा संभाला। नसरुल्ला बेग आगरा के सूबेदार थे, पर जब लॉर्ड लेक ने मराठों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया तब पद भी छूट गया। हालांकि बाद में दो परगना लॉर्ड लेक द्बारा इन्हें दे दिए गए।

प्रारंभिक शिक्षा

गालिब की प्रारंभिक शिक्षा के बारे मे कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन गालिब के अनुसार उन्होने ११ वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फारसी मे गद्य तथा पद्य लिखने आरंभ कर दिया था। उन्होने अधिकतर फारसी और उर्दू मे पारंपरिक भक्ति और सौंदर्य रस पर रचनाएं लिखी जो गजल मे लिखी हुई है। उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में गीत काव्य की रोमांटिक शैली में लिखा जिसे गजल के तौर पर जाना जाता है।

बालविवाह

गालिब बचपन से ही पढ़ने-लिखने में होनहार थ्ो। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था। इसके चलते गालिब का 13 वर्ष की आयु में उमराव बेगम से विवाह कर दिया गया। विवाह के बाद वह दिल्ली आ गए, जहां उनकी तमाम उम्र बीती।

 प्रतिभा के धनी

गालिब बचपन से ही मेहनती और होनहार थ्ो। उसी समय मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आए और गालिब के यहां डेरा जमाया। वह ईरान के एक प्रतिष्ठित और वैभव संपन्न व्यक्ति थे। फारसी और अरबी भाषा का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। उस समय मिर्जा 14 वर्ष के थे और फारसी में उन्होंने अपनी योग्यता प्रा
प्त कर ली थी। अब्दुस्समद गालिब की प्रतिभा से चकित थ्ो। उन्होंने गालिब को दो वर्ष तक फारसी भाषा और काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने अपनी सारी विद्याओं में गालिब को पारंगत कर दिया। उनका मानना था कि मेहनत से कोई भी व्यक्ति कुछ भी हासिल कर सकता है।

संगत का असर

गालिब में प्रेरणा जगाने का कार्य शिक्षा से भी ज्यादा उस वातावरण ने किया, जो इनके इर्द-गिदã था। जिस मुहल्ले में वह रहते थे, उसे गुलाबखाना कहा जाता था। जो उस जमाने में फारसी भाषा की शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। वहां एक-से-एक विद्बान रहते थ्ो। उन सबकी संगत का असर गालिब पर भी पड़ा। 24-25 वर्ष की उम्र में गालिब पर प्यार का रंग चढ़ गया। जो इनके बचपन की शौकिया श्ोरो-शायरी को विस्तृत कर परवान चढ़ा गया।
प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित हो चुका लेख

गुरबत में कटे दिन

विवाह के बाद गालिब की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती ही गईं। आगरा, ननिहाल में इनके दिन आराम व रईसीयत से बीतते थे। 1822 ई. में ब्रिटिश सरकार एवं अलवर दरबार की स्वीकृति से नवाब अहमदबख्श खां ने अपनी जायदाद का बंटवारा किया जिसमें फीरोजपुर की गद्दी पर उनके बड़े लड़के शम्सुद्दीन अहमद खां बैठे और लोहारू की जागीरें उनके दोनों छोटे बेटों को मिली। इस बंटवारे से गालिब भी प्रभावित हुए। शम्सुद्दीन द्बारा उनकी पेंशन अटका दी गई।

 दिल में समाई दिल्ली

गालिब के ससुर इलाहीबख्श खां न केवल वैभवशाली, धर्मनिष्ठ व अच्छे कवि भी थे। विवाह के दो-तीन वर्ष बाद ही गालिब स्थायी रूप से दिल्ली आ गए और उनके जीवन का अधिकांश भाग दिल्ली में ही गुजरा। बाद के समय में गालिब शहंशाह बहादुर शाह जफर द्बतीय के यहां रहने लगे। उन्हें बादशाह ने अपने बड़े पुत्र फखरुद्दीन का शिक्षक भी नियुक्त कर दिया।

शाही खिताब

सन् 185० मे शहंशाह बहादुर शाह जफर द्बतीय ने मिर्जा गालिब को ’’दबीर-उल-मुल्क’’ और ’’नज्म-उद-दौला’’ के खिताब से नवाजा। बाद मे उन्हे ’’मिर्जा नोशा’’ के खिताब भी मिला।




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