दलित आंदोलन के पीछे का सच
सोमवार को पूरे देश में दलित संगठनों की ओर से बुलाए गए भारत बंद के दौरान हुई हिंसा में अब तक दस लोगों की जान जा चुकी है। हिंसा में बदला दलित आंदोलन देश के उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र समेत करीब 20 राज्यों में फैल चुका है। क्या आप जानते हैं कि भारत बंद या दलित आंदोलन के पीछे की असली वजह क्या है। क्यूं यह मुद्दा इतना गरमा गया है। अगर नहीं जानते तो हम आपको बताते हैं।
दरअसल, बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी और इसके तहत मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी की बजाय शुरुआती जांच की बात कही थी। यहां बता दें कि एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को अत्याचार और भेदभाव से बचाने वाला क़ानून है। इसके तहत कोई भी ऊंची जाति-बिरादरी या कोई भी व्यक्ति दलितों का अपमान नहीं कर सकता है। जातिसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता है। ऐसा करने पर इस एक्ट के तहत भारी दंड का प्रावधान है।
20 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से इस क़ानून का डर कम होने और नतीज़तन दलितों के प्रति भेदभाव और उत्पीड़न के मामले बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। ये जानना भी ज़रूरी है कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फ़ैसला क्यों दिया और ये क्यों कहा कि एससी/एसटी एक्ट का बेज़ा इस्तेमाल हो रहा है।
इस मामले की कहानी शुरू होती है महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी, कराड से। इस कॉलेज के स्टोरकीपर भास्कर करभारी गायकवाड़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में उनके ख़िलाफ़ निगेटिव कॉमेंट्स किए गए। एससी/एसटी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले भाष्कर के ख़िलाफ़ ये कॉमेंट्स उनके आला अधिकारी डॉक्टर सतीश भिसे और डॉक्टर किशोर बुराडे ने किए थे जो इस वर्ग से नहीं आते थे। सतीश भिसे और किशोर बुराडे की रिपोर्ट के मुताबिक़ भास्कर अपना काम ठीक से नहीं करते थे और उनका चरित्र ठीक नहीं था।
खुद पर ऐसी टिप्पणी किए जाने से नाराज भाष्कर ने आपत्ति जताई और 4 जनवरी 2006 को सतीश भिसे और किशोर बुराडे के ख़िलाफ़ कराड पुलिस थाने में एफ़आईआर दर्ज कराई। भास्कर ने 28 मार्च 2016 को इस मामले में एक और एफ़आईआर दर्ज कराई जिसमें सतीश भिसे और किशोर बुराडे के अलावा उनकी शिकायत पर कार्रवाई न करने वाले दूसरे अधिकारियों को भी नामजद किया गया। एससी/एसटी एक्ट के तहत आरोपों की जद में आए अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने अपनी आधिकारिक क्षमता में अपने अच्छे विवेक का इस्तेमाल करते हुए ये प्रशासनिक फ़ैसले लिए थे। किसी स्टाफ़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में उसके ख़िलाफ़ निगेटिव कॉमेंट्स अपराध नहीं कहे जा सकते, भले ही उनका आदेश ग़लत ही क्यों न हो।
आरोपित अधिकारियों ने यह भी कहा कि अगर एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामले खारिज़ नहीं किए जाते तो अनुसूचित जाति और जनजाति से ताल्लुक रखने वाले स्टाफ़ की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में सही तरीके से भी निगेटिव कॉमेंट्स दर्ज कराना मुश्किल हो जाएगा। इससे प्रशासन के लिए दिक्कत बढ़ जाएगी और वैध तरीके से भी सरकारी काम करना बेहद मुश्किल हो जाएगा।
इस मामले की सुनवाई के बाद 20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में इस एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी और इसके तहत मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी की बजाय शुरुआती जांच की बात कही थी। जानकारों का कहना है कि एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति करने से सरकार को इस कानून में बदलाव करने का मौका मिल गया। ऐसे में दलितों को चिंता सताने लगी कि उनके अधिकारों और न्याय की रक्षा करने वाला यह कानून बदल गया तो ऊंची जाति या धनवान व्यक्ति उनका शोषण करने लगेंगे। कानून में संशोधन में न हो इसके लिए दलित संगठनों ने सोमवार को पूरे देश में भारत बंद का ऐलान किया था। दलितों का यह आंदोलन हिंसा की भेंट चढ़ गया।
भारत बंद की अपील करने वाले अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय महासंघ के राष्ट्रीय प्रधान महासचिव केपी चौधरी ने बताया कि इस एक्ट (क़ानून) से दलित समाज का बचाव होता था। दलितों पर अत्याचार करने वालों के लिए यह एक्ट एससी-एसटी एक्ट चाबुक की तरह काम कर रहा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से परिस्थितियां उलट होने की संभावना बन गई है। ऐसे में इस वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति दुखी और आहत है और ख़ुद को पूरी तरह से असुरक्षित महसूस कर रहा है।
जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित की खंडपीठ के फ़ैसले पर पुनर्विचार के लिए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को याचिका दायर कर दी है। हालांकि अब ये सुप्रीम कोर्ट पर निर्भर करता है कि उसका क्या रुख होता है।
इनपुट: बीबीसी से
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