Sunday 10 June 2018

बुंदेलखंड का सूखा

बुंदेलखंड हमेशा से कम बारिश वाला इलाका रहा है, लेकिन 2002 से लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया है.यह जमीनी बताती है कि बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है. साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे।


दिल्ली के पास वैशाली में तकरीबन नियमित रूप से एक रिक्शेवालेचेतराम से मेरी मुलाकात होती है जो अमूमन सफ़ेद कमीज़ और पाजामे में होता है। वही चेतराम मुझे एक रोज़ अपने घर के असबाब के साथ सड़क पर खड़ा मिल गया। उसकी झुग्गी उजाड़ दी गई थी। आनंद विहार, दिल्ली की सरहद है और एक सड़क इस केंद्रशासित प्रदेश को उत्तर प्रदेश से अलग करती है। इसी सड़क से थोड़ा और आगे जाएंगे तो वैशाली और इंदिरापुरम जैसी पॉशकॉलोनियां हैं।

वैशाली में, जहां मैं रहता हूं, आसपास अभी अनगिनत खाली प्लॉट हैं, जिनपर न जाने कितने लोग झुग्गियां बनाकर रहते हैं। वहां महागुनमेट्रो और शॉप्रिक्स जैसे चमचमाते मॉल्स हैं, जहां की दुनिया में पॉपकॉर्न जैसी चीज़ें मक्खन के साथ खाई जाती हैं, उससे थोड़ा आगे ही करोड़ों की कीमत वाले खाली प्लॉट्स पर झुग्गियों में न जाने कितनी ज़िंदगियां अपने अरबों-खरबों के सपनों को जीने लिए जाने कहां-कहां से आती हैं।

चेतराम भी उन्हीं में से एक हैं, जो उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड से पलायन करने को मजबूर हुए हैं। बिरादरी से दलित चेतराम पेट पालने के चक्कर में घर छोड़कर यहां किसी और की ज़मीन पर रहते हैं, जहां उनकी झुग्गी अवैध और गंदी बस्ती के रूप में गिनी जाती है।

ऐसी ही किसी गिनती को कम करने के लिए गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण ने सभी खाली प्लॉटवालों को अपने प्लॉट पर निर्माण कार्य शुरू कराने का आदेश दिया, ऐसा न करने पर आवंटन रद्द कर दिया जाता। इसीलिए, चेतराम की झुग्गी उजाड़ दी गई। झुग्गी ही नहीं उजड़ी, उनका घर और उनकी दुनिया भी उजड़ गई। अब चेतराम और उसके गांव के उसके ही जैसे लोग, मकनपुर गांव में रहते हैं। वहां भी वो किसी खाली ज़मीन पर ही रहते हैं, जहां रोज़मर्रा की दिक्कतें हैं। पानी की, शौच की, सफ़ाई की, हर क़िस्म की दिक़्क़त।

चेतराम, बुंदेलखंड के अपने गांव गन्हौली से निकले तो अपने पीछे सात बीघा ज़मीन छोड़कर आए थे। वे बड़े शान से बताते हैं कि उनका इलाका बेमिसाल राजाओं का इलाक़ा रहा है। राजा परमार देव का ज़िक्र करते हुए चेतराम कहते हैं-बड़े लड़इयामहुबे वाले, इनकी मार सही न जाए। ठीक है कि इतिहास में महोबे के वीरों की मार बहुत भारी थी और उन्हें हराना कठिन था लेकिन आज की तारीख़ में पानी ने सबको त्रस्त करके रख दिया है।

चेतराम के इलाक़े में एक के बाद कई एक बरसों तक नियमति बारिश नहीं होने से खेती फ़ायदे का सौदा नहीं रह गया। सात बीघा ज़मीन को बटाई पर लगाकर, काम की तलाश में चेतराम सपरिवार दिल्ली आ गए। बटाई वाली ज़मीन से कुछ मिलता नहीं। दिल्ली में वे ख़ून-पसीना बहाते हुए रिक्शा चलाते हैं। लेकिन उनकी आंखों में गांव वापस जाने का सपना और उम्मीद भी ज़िंदा है।

केन नदी के किनारे ज़िंदगी उम्मीद के सहारे आगे बढ़ती है। शायद इसी ने ज़िंदा रखा था, गढ़ा गांव के प्रह्लाद सिंह को। बड़ी-बड़ी शानदार मूंछों वाले प्रह्लाद सिंह ने अपनी जवानी में किसी का क़त्ल कर दिया था। क़त्ल का जुर्म अदालत में साबित हो गया, 1962 में बांदा ज़िला अदालत ने उन्हें सज़ा-ए-मौत सुनाई। लेकिन, प्रह्लाद सिंह को राष्ट्रपति से जीवनदान मिला और उनकी सज़ा आजीवन कारावास में बदल दी गई।

प्रह्लाद सिंह ने दस साल जेल में काटे थे कि सन बहत्तर में नेकचलनी की वजह से उन्हें वक़्त से पहले रिहा कर दिया गया। प्रह्लाद, गांव लौटे तो नई उम्मीद के साथ ज़िंदगी को दोबारा पटरी पर लाने की कोशिश की। गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। अभी एक दशक पहले तक सब कुछ ठीक-ठाक था। लेकिन परिवार बड़ा हुआ तो प्रह्लाद सिंह और उनके भाई ने मिलकर ट्रैक्टर के लिए बैंक से कर्ज़ ले लिया। इसी कर्ज़ ने उनके परिवार को बरबाद कर दिया।
साल 2002 के बाद बुंदेलखंड का पूरा इलाक़ा लगातार सूखे की गिरफ़्त में आता गया। यह इलाक़ा पहले से ही कम बारिश वाला रहा है, लेकिन लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया। प्रह्लाद सिंह की खेती चौपट हो गई। आमदनी का ज़रिया जाता रहा। बैंकों को कर्ज़ दिए गए पैसे वापस चाहिए थे। 

यह बात और है कि यह बैंक सरकारी थे और इस देश में विजय माल्या जैसे कई उद्योगपति हैं जिन्होंने इन्हीं सरकारी बैंकों का पैसा दबा रखा है, और चुकाने के वक्त विदेश चले गए। यह बात भी और है कि देश के 6 हज़ार उद्योगपतियों ने बैंकों से सवा लाख करोड़ का कर्ज़ ले रखा है। उनमें से कोई आत्महत्या नहीं करता, न ही उन पैसों के लिए बैंक कभी हलकान होता है और उनके घर भाड़े के गुंडे भेजता है।

लेकिन गढ़ा गांव के किसान प्रह्लाद सिंह के घर बैंक ने भाड़े के गुंडे भेज दिए। वह साल 2007 था, जब किराए के गुंडों ने बैंक की तरफ़ से प्रह्लाद सिंह के ट्रैक्टर को कब्ज़े में ले लिया। ट्रैक्टर नीलाम कर दिया गया और उसके बाद बची बाक़ी की रकम की देनदारी की आख़िरी नोटिस भी निकाल दी गई।

जिन लोगों ने भारत के किसानों को ज़रा नज़दीक से देखा होगा, उन्हें इस बात का अंदाज़ा होगा कि एक किसान के लिए कितनी अहम होती है, उसकी साख, उसकी इज़्ज़त। खेत सूखे थे, कमाई का एक ज़रिया ट्रैक्टर था, वह भी चला गया। पहले तो प्रह्लाद सिंह के परेशान भाई और फिर उनके बेटे, बच्ची सिंह ने आत्महत्या कर ली। सयानी हो रही पोती मनोरमा चाहती थी कि वह अपने दादा को ब्याह के खर्च से बचाए। मनोरमा भी एक दिन डाई (बालों में लगाने वाला रंग) पीकर हमेशा के लिए सो गई। दिवंगत बेटे और पोती की तस्वीर दिखाते प्रह्लाद सिंह कहते हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति से ऐसे बुढ़ापे के लिए क्षमादान नहीं मांगा था।

बुंदेलखंड का एक ख़ुद्दार किसान, कर्ज़ चुकाना तो चाहता है लेकिन प्रह्लाद सिंह जैसे किसानों की मजबूरी है कि जिस खेती पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी, वह खेती आज उनके बीज तक वापस नहीं कर पा रही।  प्रह्लाद सिंह की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की सवा दो करोड़ की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है। प्रह्लाद सिंह की ही तरह बाक़ी लोगों की उम्मीदों की डोर टूटने लगी है। कर्ज़ एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं। लेकिन, ये शर्त जानलेवा है।

साभार- मंजीत ठाकुर की किताब 'बुंदेलखंड: बूंद चली पाताल' से।

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