Wednesday 12 March 2014

उस यात्रा का रहस्य....

नानी और उनका घर


वो अकेला ऐसा घर होता था, जहां कुछ भी उल्टा करो सब सीधा हो जाता था। उस घर को ही तो नानी का घर कहा जाता है। कई साल गुजर गए वहां गए हुए। बचपन में बिताए गए उन लम्हों की बारिश आज भी मन के आंगन को बिना इजाजत लिए भिगोकर चली जाती है।
 
कानपुर शहर से तकरीबन चालीस किलोमीटर दूर नेशनल हाइवे के साथ सटा हुआ बसा है मेरा ननिहाल। वहां एक कस्बे के अनुसार सारी मूलभूत जरूरते पूरी होने के सारे संसाधन मौजूद हैं। और मेरे लिए तो शायद हर वो जरूरत जो कहीं और पूरी नहीं हो सकती यहां पूरी हो जाती है।
काफी अरसा गुजर चुका है, जब मैं आखिरी बार वहां गया था। उसदिन सन्नाटा शायद जून के धड़धड़ाते हवारे पर भारी पड़ रहा था। बस भी ऐसी चाल में थी जैसे उसकी यह आखिरी यात्रा हो। बस पर व यात्रियों पर गर्मी और लू के थपेड़ों का असर साफ दिख रहा था।
 
अम्मी का चेहरा इससे पहले मैनें कभी ऐसा नहीं देखा था। पहली बार ऐसा था जब नानी के यहां जाते वक्त जैसे वो मुझे जबरदस्ती लाद के ले जा रहीं थीं। हालांकि मैं तो उन पर बोझ नहीं था मैं तो पापा की गोद को सिंहासन समझ अपने राज्य का स्वतंत्र संचालन कर रहा था। जहां सब मेरे हुक्म का पालन करते थे। तभी बस में शोरगुल शुरु हो गया। मेरा सिंहासन हिल चुका था। पापा और अन्य यात्री बस से उतर कर बाहर खड़े थे।
 
दरअसल एक बिल्ली बस के रास्ते आ अपने जीवन की लीला समा’ कर चुकी थी। या शायद बस ने उसको अपनी चपेट में लिया था। सही-सही कहना थोड़ा मुश्किल है। कुछ देर बाद बस अपने रास्ते पर फिर दौड़ चुकी थी साथ में यात्रियों की तमाम अनहोनी से जुड़ी घटनाओं का दौर लेकर।
इन सब चीजों का असर अम्मी पर बिल्कुल भी नहीं समझ आ रहा था। उनके चेहरे पर अजीब सी बेचैनी और शिकन की रेखाओं के सिवा मुझे कुछ नहीं दिख रहा था। आज मुझसे ज्यादा जल्दी शायद उन्हें नानी के घर पहुंचने की थी। लेकिन ऐसा क्यूं? इस पर मेरा मासूम मन नहीं जा पा रहा था।
 
बस धीरे-धीरे अपनी गति से गतिमान हो रही थी। अब बस का माहौल बेहद शांत लेकिन तनावपूर्ण लग रहा था। आमतौर पर यात्रा के दौरान मैं सो जाया करता था। लेकिन उस दिन आंखों ने नींद पर विजय प्रा’ कर ली थी। शायद अम्मी-पापा के तनाव का असर मेरे ऊपर भी हावी हो चुका था।
बस अब अपने थोभड़े को खोल चुकी थी, जिसकी पों-पों की आवाज सुन दूसरे वाहन रास्ता दे रहे थे। बस की पों-पों तेज हो गई थी वहीं उसकी रफ्तार धीमी। दरअसल भीड़-भाड़ और उस कस्बे की सीमा की शुरुआत हो चुकी थी। जहां मेरे नानी का यानी मेरा सबसे प्यारा घर है।
 
अम्मी अब और अधीर हो रहीं थीं। बस ने अपने पैर स्टैंड पर जमा दिए थे और यात्रियों के पैर खुल चुके थे रास्तों पर दौड़ने के लिए। आज अम्मी इतनी हड़बड़ी में क्यूं हैं? झुंझलाते हुए मैने पापा से शिकायती लहजे में पूछा था। लेकिन पापा के कानों में शायद मेरी आवाज नहीं पहुंच पा रही थी। वो सिर्फ रिक्श्ो को आवाज देने में व्यस्त थे।
 
करीब पांच मिनट बाद हम नानी के दरवाजे पर पहुंच चुके थे। वहां लोगों का जमावड़ा था। माहौल बिल्कुल शांत और बेचैन करने वाला था। ज्यादातर मुझे सफेद लिबाजों में लिपटे लोग ही नजर आ रहे थे। ऐसा सन्नाटा मैनें आज से पहले कभी नहीं महसूस किया। तभी भीड़ से चीरती, कांपती सिसकियां मेरे कानों में किसी अजीज के इस दुनिया से रुखसत होने का संदेशा पहुंचा रहीं थीं। अब अम्मी की अधीरता, चेहरे की शिकन, मन की बेचैनी, पापा की जल्दबाजी और परेशानी का राज मेरी समझ में आ चुका था।

 

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